कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मोहन राकेश) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मोहन राकेश)मोहन राकेश
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मोहन राकेश की दस प्रतिनिधि कहानियाँ...
10 pratinidhi kahaniyan - Hindi Stories by MOHAN RAKESH - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - मोहन राकेश
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मोहन राकेश की कहानियों के अनेक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं और सबमें लगभग एक सी कहानियाँ ही संकलित की गई हैं। हालाँकि यह वाकई जरूरी नहीं कि एक समय-विशेष की बहुचर्चित कहानी रचनाकार की प्रिय कहानी भी हो और न ही यह आवश्यक है कि लेखक की प्रिय कहानी समय सिद्ध श्रेष्ठ कहानी भी स्वीकार की जा सके। इस तरह, अन्य लेखकों, पाठकों समीक्षकों अनुवादकों और इतिहासकारों द्वारा पसंद की गई सभी कहानियाँ अनिवार्यतः उस कहानीकार की प्रतिनिधि कहानियाँ नहीं भी हो सकतीं। फिर भी, प्रत्येक लेखक की कुछ कहानियाँ ऐसी ज़रूर होती हैं, जो इन तमाम वर्गों में समान रूप से ससम्मान सम्मिलित की जा सकती हैं। जहाँ तक मोहन राकेश का प्रश्न है, उनकी कहानियों के कथ्य-शिल्पगत प्रयोगों की संख्या और विविधता को देखते हुए यह एक मुश्किल काम है। फिर भी, राकेश के सहधर्मी और नई कहानी आंदोलन के सहयात्री राजेंद्र यादव ‘मिस पाल’, ‘एक और ज़िंदगी’, ‘आर्द्रा’, ‘मलबे का मालिक’ तथा ‘जानवर और जानवर’ को राकेश की ‘श्रेष्ठ कहानियाँ’ मानते हैं तो मोहन गुप्त द्वारा संपादित संग्रह में ‘पाँचवें माले का फ़्लैट’, ‘उसकी रोटी’ तथा ‘वारिस’ को भी शामिल कर लिया गया है। स्वयं मोहन राकेश ‘ग्लास टैंक’, ‘जँगला’, ‘मंदी’, ‘परमात्मा का कुत्ता’, ‘अपरिचित’, ‘एक ठहरा हुआ चाकू’, ‘वारिस’, ‘सुहागिनें’, ‘पाँचवें माले का फ़्लैट’ तथा ‘ज़ख्म’ को अपनी प्रिय कहानियाँ मानते हैं। परंतु अपनी प्रतिनिधि कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए कार्लो कपोला के साथ मिलकर राकेश ने ही ‘उसकी रोटी’, ‘एक और ज़िंदगी’, ‘अपरिचित जानवर और जानवर’ के अलावा ‘सेफ्टी पिन’, ‘ग्लास टैंक’, ‘फ़ौलाद का आकाश’, ‘सुहागिनें’, ‘गुनाह-बेलज्जत’, ‘आदमी और दीवार’, ‘ज़ख्म’, ‘सोया हुआ शहर’, ‘काला घोड़ा’ तथा ‘(काला) रोज़गार’ को भी चुना था।
हम सब जानते हैं कि भारतवर्ष में समांतर सिनेमा का श्रीगणेश करने वाली मणि कौल की प्रशंसित-पुरस्कृत फिल्म ‘उसकी रोटी’ मोहन राकेश की कहानी पर ही आधारित थी रमण कुमार द्वारा फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पूना के लिए बनाई गई उनकी डिप्लोमा फिल्म ‘सदमा’ राकेश की कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ का रूपांतर थी। जोगेंद्र शैली ने अपने टी.वी. धारावाहिक ‘मिट्टी के रंग’ के लिए ‘मवाली’ ‘एक ठहरा हुआ चाकू’, ‘आखिरी सामान’, ‘मिस्टर भाटिया’, ‘सुहागिनें’ ‘मरुस्थल’ तथा ‘एक और ज़िंदगी’ का चुनाव किया तो राजिंदर नाथ ने दूरदर्शन के लिए ‘आर्द्रा’ को चुना।
देवेंद्र राज अंकुर ने अपनी ‘कहानी का रंगमंच’ शैली की विभिन्न प्रस्तुतियों के लिए ‘अपरिचित’, ‘मलबे का मालिक’, ‘बस स्टैंड पर एक रात’, ‘मिस पाल’ तथा ‘एक और ज़िंदगी’ को पसंद किया तो अरुण कुकरेजा ने ‘रुचिका’ के लिए ‘उसकी रोटी’ को। मोहन राकेश की अनेक कहानियों के जर्मन, रूसी, इटैलियन, चीनी और जापानी भाषाओं में अनुवाद भी किए गए और कुछेक भाषाओं में रेडियो से इनका प्रसारण भी हुआ।
इस लंबी भूमिका का अर्थ यहाँ सिर्फ इतना ही है कि मोहन राकेश की उनके मरणोपरांत छपी एकदम आरंभिक बारह कहानियों को यदि छोड़ भी दिया जाए तो सन् 1947 से 1969 के बीच लिखी उनकी कुल 54 कहानियों में से केवल दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनना आसान काम नहीं है। राकेश की सिर्फ मध्यवर्गीय चरित्रों पर केंद्रित ‘भोगे हुए यथार्थ’ की आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई बहुचर्चित चुस्त दुरुस्त मार्मिक, जीवंत और सर्वाधिक श्रेष्ठ कहानियों को चुन लेना सुविधाजनक एवं निर्विवाद काम तो है, लेकिन शायद बहुत सही नहीं है। इन्हीं कहानियों को उनकी ‘प्रतिनिधि’ कहानियाँ मान लेना राकेश की बहुमुखी संवेदना, ‘मौलिक प्रतिभा, उर्वर कल्पनाशीलता और क्रमशः विकसित होती शिल्प-कुशलता के प्रति अन्याय करना होगा। मेरे विचार से उनकी प्रतिनिधि कहानियों में आरंभ से अंत तक के संपूर्ण रचना-काल के विविध दौरों, अनेक जाति, धर्म वर्ग और ओहदे के बहुरंगी मानसिकता वाले चरित्रों वैविध्यपूर्ण घटनाओं एवं अनुभवों तथा गाँवों, कस्बों, शहरों, महानगरों और हिल स्टेशनों के बहुवर्णी परिवेश तथा शिल्पगत बहुविधि मौलिक प्रयोगों का पूरा प्रतिनिधित्व होना पहली और बुनियादी शर्त है। इसके बाद तो लगभग एक ही तरह की तीन-चार कहानियों में से एक को रखना और दूसरी को छोड़ देना अंततः चुनावकर्ता की व्यक्तिगत रुचि-अरुचि और समझ पर ही निर्भर करता है।
1950 में प्रकाशित राकेश के पहले कहानी-संग्रह ‘इंसान के खँडहर’ की सभी कहानियों के कथ्य और शिल्प दोनों में बेशक एक तरह की ‘कोशिश’ दिखाई देती है। यहाँ किसी हद तक ‘एक अनिश्चित तलाश का कच्चापन’, ‘जुमलेबाजी’ और ‘शब्दों का अतिरिक्त मोह’ भी है। इसके बावजूद उसमें से एक भी कहानी को न चुनना राकेश की कथा-यात्रा के कच्चे-पक्के आरंभिक महत्त्वपूर्ण पड़ाव को ही नकार देना होगा। यही कारण है कि इस संकलन की पहली कहानी के रूप में अल्पचर्चित किंतु उस दौर की एक प्रतिनिधि और अच्छी कहानी ‘सीमाएँ’ को रखा गया है। ये राकेश की उन दो चार कहानियों में से एक है जो शैली की दृष्टि से प्रथम पुरुष के बजाय तृतीय-पुरुष के रूप में लिखी गई है। इसमें एक किशोरी के अकेलेपन, कुंठा और मनोविज्ञान का अत्यंत आत्मीय सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि बाद के संस्करण में राकेश ने इसकी कहानियों में यत्र-तत्र संपादन करके अभिधात्मक अभिव्यक्तियों को या तो हटा दिया या फिर उन्हें व्यंजनात्मक या सांकेतिक बनाने का कलात्मक प्रयास भी किया। संग्रह का नाम ‘इंसान के खँडहर’ से बदलकर केवल ‘खँडहर’ कर दिया गया। ‘सीमाएँ’ का वह अंश जिसमें शादी में जाते समय उमा महसूस करती है कि वह, सीमाओं से आगे जा रही है। सीमाएँ जो उसकी हैं और स्वाभाविक हैं-माँ, घर, मंदिर, उत्सव, और उसके हृदय के अंदर घुटती चेतना’ को स्वयं राकेश द्वारा ही हटा दिया गया है।
इसी तरह ‘उसकी रोटी’ का अंतिम अंश भी किंचित संशोधित किया गया है। राकेश की कथा-यात्रा के दूसरे दौर की शुरूआत ‘सौदा’ के प्रकाशन से हुई। आरोपित बौद्धिकता, जुमलेबाज़ी और बनावटीपन से मुक्त होकर ही ‘नए बादल’ की कहानियाँ लिखीं गईं, जिसका प्रकाशन 1957 में हुआ। इस संकलन में से ‘मलबे का मालिक’, ‘उसकी रोटी’ और ‘अपरिचित’ को चुना गया है, तो 1958 में प्रकाशित संग्रह ‘जानवर और जानवर’ में से ‘क्लेम’, ‘आर्द्रा’ और ‘रोज़गार’ जैसी विविध रूप रंग की सुप्रसिद्ध कथाकृतियों को रखा गया है। ये सभी कहानियाँ व्यक्ति के समाज और परिवेश से जुड़ाव तथा इनके अंदरुनी रिश्तों की कहानियाँ हैं। 1961 में छपे संग्रह ‘एक और ज़िंदगी’ में राकेश के कथा लेखन के तीसरे दौर की कहानियाँ हैं। इनमें संबंधों से उत्पन्न दबावों तनावों और अकेलपन के श्राप से ग्रस्त लोगों की पीड़ा का तथा परिवेश और समाज के साथ उनके विडंबनापूर्ण रिश्तों की यंत्रणा का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण हुआ है। ‘सुहागिनें’ और ‘गुनाह बेलज्जत’ इसी दौर की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। 1966 में प्रकाशित ‘फौलाद का आकाश’ की कहानियाँ महानगरों की ज़िंदगी की भयावहता के बीच डरे सहमे व्यक्ति के संत्रास की रोचक कहानियाँ हैं। यहाँ इनमें से राकेश की आत्मकथात्मक, संवेदनशील सूक्ष्म और जीवंत कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ को रखा गया है। आज के समाज में चहुँ ओर फैली प्रत्यक्ष गुंडागर्दी के आतंक के बीच एक सामान्य व्यक्ति की असुरक्षा निरीहता और अंतविर्रोधी जटिल मानसिकता का जैसा सच्चा, प्रामाणिक एवं त्रासदायक चित्रण इस कहानी में हुआ है, वह समकालीन हिंदी कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
मैं आशा करता हूँ कि लेखन-प्रकाशन की दृष्टि से काल क्रम में संयोजित मोहन राकेश की केवल दस कहानियों का यह नया संकलन न केवल लेखक के संवेदन अनुभव एवं शिल्प कौशल के रचनात्मक क्रमिक विकास को ही रेखांकित करेगा बल्कि उसके व्यापक कथा-व्यक्तित्व का संपूर्ण एवं समग्र प्रतिनिधित्व भी करेगा इस संकलन के लिए कहानियों का चुनाव करने और भूमिका लिखने के गंभीर दायित्व के लिए अनीता जी द्वारा मुझ पर किए गए भरोसे और राकेश के गहरे दोस्त तथा मेरे मित्र श्री सत्येंद्र शरत् द्वारा दिए गए बौद्धिक सहयोग के प्रति आभारी हूँ।
हम सब जानते हैं कि भारतवर्ष में समांतर सिनेमा का श्रीगणेश करने वाली मणि कौल की प्रशंसित-पुरस्कृत फिल्म ‘उसकी रोटी’ मोहन राकेश की कहानी पर ही आधारित थी रमण कुमार द्वारा फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पूना के लिए बनाई गई उनकी डिप्लोमा फिल्म ‘सदमा’ राकेश की कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ का रूपांतर थी। जोगेंद्र शैली ने अपने टी.वी. धारावाहिक ‘मिट्टी के रंग’ के लिए ‘मवाली’ ‘एक ठहरा हुआ चाकू’, ‘आखिरी सामान’, ‘मिस्टर भाटिया’, ‘सुहागिनें’ ‘मरुस्थल’ तथा ‘एक और ज़िंदगी’ का चुनाव किया तो राजिंदर नाथ ने दूरदर्शन के लिए ‘आर्द्रा’ को चुना।
देवेंद्र राज अंकुर ने अपनी ‘कहानी का रंगमंच’ शैली की विभिन्न प्रस्तुतियों के लिए ‘अपरिचित’, ‘मलबे का मालिक’, ‘बस स्टैंड पर एक रात’, ‘मिस पाल’ तथा ‘एक और ज़िंदगी’ को पसंद किया तो अरुण कुकरेजा ने ‘रुचिका’ के लिए ‘उसकी रोटी’ को। मोहन राकेश की अनेक कहानियों के जर्मन, रूसी, इटैलियन, चीनी और जापानी भाषाओं में अनुवाद भी किए गए और कुछेक भाषाओं में रेडियो से इनका प्रसारण भी हुआ।
इस लंबी भूमिका का अर्थ यहाँ सिर्फ इतना ही है कि मोहन राकेश की उनके मरणोपरांत छपी एकदम आरंभिक बारह कहानियों को यदि छोड़ भी दिया जाए तो सन् 1947 से 1969 के बीच लिखी उनकी कुल 54 कहानियों में से केवल दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनना आसान काम नहीं है। राकेश की सिर्फ मध्यवर्गीय चरित्रों पर केंद्रित ‘भोगे हुए यथार्थ’ की आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई बहुचर्चित चुस्त दुरुस्त मार्मिक, जीवंत और सर्वाधिक श्रेष्ठ कहानियों को चुन लेना सुविधाजनक एवं निर्विवाद काम तो है, लेकिन शायद बहुत सही नहीं है। इन्हीं कहानियों को उनकी ‘प्रतिनिधि’ कहानियाँ मान लेना राकेश की बहुमुखी संवेदना, ‘मौलिक प्रतिभा, उर्वर कल्पनाशीलता और क्रमशः विकसित होती शिल्प-कुशलता के प्रति अन्याय करना होगा। मेरे विचार से उनकी प्रतिनिधि कहानियों में आरंभ से अंत तक के संपूर्ण रचना-काल के विविध दौरों, अनेक जाति, धर्म वर्ग और ओहदे के बहुरंगी मानसिकता वाले चरित्रों वैविध्यपूर्ण घटनाओं एवं अनुभवों तथा गाँवों, कस्बों, शहरों, महानगरों और हिल स्टेशनों के बहुवर्णी परिवेश तथा शिल्पगत बहुविधि मौलिक प्रयोगों का पूरा प्रतिनिधित्व होना पहली और बुनियादी शर्त है। इसके बाद तो लगभग एक ही तरह की तीन-चार कहानियों में से एक को रखना और दूसरी को छोड़ देना अंततः चुनावकर्ता की व्यक्तिगत रुचि-अरुचि और समझ पर ही निर्भर करता है।
1950 में प्रकाशित राकेश के पहले कहानी-संग्रह ‘इंसान के खँडहर’ की सभी कहानियों के कथ्य और शिल्प दोनों में बेशक एक तरह की ‘कोशिश’ दिखाई देती है। यहाँ किसी हद तक ‘एक अनिश्चित तलाश का कच्चापन’, ‘जुमलेबाजी’ और ‘शब्दों का अतिरिक्त मोह’ भी है। इसके बावजूद उसमें से एक भी कहानी को न चुनना राकेश की कथा-यात्रा के कच्चे-पक्के आरंभिक महत्त्वपूर्ण पड़ाव को ही नकार देना होगा। यही कारण है कि इस संकलन की पहली कहानी के रूप में अल्पचर्चित किंतु उस दौर की एक प्रतिनिधि और अच्छी कहानी ‘सीमाएँ’ को रखा गया है। ये राकेश की उन दो चार कहानियों में से एक है जो शैली की दृष्टि से प्रथम पुरुष के बजाय तृतीय-पुरुष के रूप में लिखी गई है। इसमें एक किशोरी के अकेलेपन, कुंठा और मनोविज्ञान का अत्यंत आत्मीय सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि बाद के संस्करण में राकेश ने इसकी कहानियों में यत्र-तत्र संपादन करके अभिधात्मक अभिव्यक्तियों को या तो हटा दिया या फिर उन्हें व्यंजनात्मक या सांकेतिक बनाने का कलात्मक प्रयास भी किया। संग्रह का नाम ‘इंसान के खँडहर’ से बदलकर केवल ‘खँडहर’ कर दिया गया। ‘सीमाएँ’ का वह अंश जिसमें शादी में जाते समय उमा महसूस करती है कि वह, सीमाओं से आगे जा रही है। सीमाएँ जो उसकी हैं और स्वाभाविक हैं-माँ, घर, मंदिर, उत्सव, और उसके हृदय के अंदर घुटती चेतना’ को स्वयं राकेश द्वारा ही हटा दिया गया है।
इसी तरह ‘उसकी रोटी’ का अंतिम अंश भी किंचित संशोधित किया गया है। राकेश की कथा-यात्रा के दूसरे दौर की शुरूआत ‘सौदा’ के प्रकाशन से हुई। आरोपित बौद्धिकता, जुमलेबाज़ी और बनावटीपन से मुक्त होकर ही ‘नए बादल’ की कहानियाँ लिखीं गईं, जिसका प्रकाशन 1957 में हुआ। इस संकलन में से ‘मलबे का मालिक’, ‘उसकी रोटी’ और ‘अपरिचित’ को चुना गया है, तो 1958 में प्रकाशित संग्रह ‘जानवर और जानवर’ में से ‘क्लेम’, ‘आर्द्रा’ और ‘रोज़गार’ जैसी विविध रूप रंग की सुप्रसिद्ध कथाकृतियों को रखा गया है। ये सभी कहानियाँ व्यक्ति के समाज और परिवेश से जुड़ाव तथा इनके अंदरुनी रिश्तों की कहानियाँ हैं। 1961 में छपे संग्रह ‘एक और ज़िंदगी’ में राकेश के कथा लेखन के तीसरे दौर की कहानियाँ हैं। इनमें संबंधों से उत्पन्न दबावों तनावों और अकेलपन के श्राप से ग्रस्त लोगों की पीड़ा का तथा परिवेश और समाज के साथ उनके विडंबनापूर्ण रिश्तों की यंत्रणा का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण हुआ है। ‘सुहागिनें’ और ‘गुनाह बेलज्जत’ इसी दौर की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। 1966 में प्रकाशित ‘फौलाद का आकाश’ की कहानियाँ महानगरों की ज़िंदगी की भयावहता के बीच डरे सहमे व्यक्ति के संत्रास की रोचक कहानियाँ हैं। यहाँ इनमें से राकेश की आत्मकथात्मक, संवेदनशील सूक्ष्म और जीवंत कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ को रखा गया है। आज के समाज में चहुँ ओर फैली प्रत्यक्ष गुंडागर्दी के आतंक के बीच एक सामान्य व्यक्ति की असुरक्षा निरीहता और अंतविर्रोधी जटिल मानसिकता का जैसा सच्चा, प्रामाणिक एवं त्रासदायक चित्रण इस कहानी में हुआ है, वह समकालीन हिंदी कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
मैं आशा करता हूँ कि लेखन-प्रकाशन की दृष्टि से काल क्रम में संयोजित मोहन राकेश की केवल दस कहानियों का यह नया संकलन न केवल लेखक के संवेदन अनुभव एवं शिल्प कौशल के रचनात्मक क्रमिक विकास को ही रेखांकित करेगा बल्कि उसके व्यापक कथा-व्यक्तित्व का संपूर्ण एवं समग्र प्रतिनिधित्व भी करेगा इस संकलन के लिए कहानियों का चुनाव करने और भूमिका लिखने के गंभीर दायित्व के लिए अनीता जी द्वारा मुझ पर किए गए भरोसे और राकेश के गहरे दोस्त तथा मेरे मित्र श्री सत्येंद्र शरत् द्वारा दिए गए बौद्धिक सहयोग के प्रति आभारी हूँ।
जयदेव तनेजा
सीमाएँ
इतना बड़ा घर था, खाने-पहनने और हर तरह की सुविधा थी, फिर भी उमा के जीवन में बहुत बड़ा अभाव था जिसे कोई चीज़ नहीं भर सकती थी।
उसे लगता था, वह देखने में सुंदर नहीं है। वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुँझलाहट भर आती। उसका मन होता कि उसकी नाक लंबी हो, गाल ज़रा हलके हों, ठोड़ी आगे की ओर निकली हो और आँखें थोड़ा और बड़ी हों। परंतु अब यह परिवर्तन कैसे होता ? उसे लगता कि उसके प्राण एक गलत शरीर में फँस गए हैं, जिससे निस्तार का कोई चारा नहीं, और वह खीझकर शीशे के सामने से हट जाती।
उसकी माँ हर रोज़ गीता का पाठ करती थी। वह बैठकर गीता सुना करती थी : कभी माँ कथा सुनने जाती तो वह साथ चली जाती थी। रोज रोज पंडित की एक ही तरह की कथा होती थी-‘नाना प्रकार कर-करके नारद जी कहते भए हे राजन्..पंडित जो कुछ सुनाता था, उसमें उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी। उसकी माँ कथा सुनते सुनते ऊँघने लगती थी। वह दरी पर बिखरे हुए फूलों को हाथों में लेकर मसलती रहती थी।
घर में माँ ने ठाकुरजी की मूर्ति रखी थी, जिसकी दोनों समय आरती होती थी। उसके पिता रात को रोटी खाने के बाद ‘चौरासी बैष्णवों की वार्ता’ में से कोई वार्ता सुनाया करते थे। वार्ता के अतिरिक्त जो चर्चा होती, उसमें सतियों के चरित्र और दाल आटे का हिसाब, निराकार की महिमा और सोने चाँदी के भाव, सभी तरह के विषय आ जाते। वह पिता द्वारा दी गई जानकारी पर कई बार आश्चर्य प्रकट करती, पर उस आश्चर्य में उत्साह नहीं होता।
उसे मिडिल पास किए चार साल हो गए थे। तब से अब तक वह उस संधिकाल में से गुजर रही थी जब सिवा विवाह की प्रतीक्षा करने के जीवन का और कोई ध्येय नहीं होता। माता पिता जिस दिन भी विवाह कर दें, उस दिन उसे पत्नी बनकर दूसरे घर में चली जाना था। यह महीने दो महीने में भी संभव हो सकता था, और दो तीन साल और भी प्रतीक्षा में निकल जा सकते थे।
उमा कुछ कर नहीं रही थी, फिर भी अपने में व्यस्त थी। बैठी थी, लेट गई। फिर उठकर कमरे में टहलने लगी। फिर खिड़की के पास खड़ी होकर गली की ओर देखने लगी और काफी देर तक देखती रही।
सवेरे रक्षा उसे सरला के ब्याह का बुलावा दे गई थी। वह कह गई थी कि वह साढ़े पाँच बजे तैयार रहे, वह उसे आकर ले जाएगी। पहले रक्षा ने उसे बताया था कि सरला का किसी लड़के से प्रेम चल रहा है, जो उसे चिट्ठियों में कविता लिखकर भेजता है और जलती दोपहर में कॉलेज के गेट के पास उसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। आज वह प्रेम फलीभूत होने जा रहा था। प्रेम यह शब्द उसे गुदगुदा देता था। राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा तो रोज़ ही घर में हुआ करती थी। परंतु उस दिव्य और अलौकिक प्रेम के बखान से वह विभोर नहीं होती थी। परंतु यह प्रेम...उसकी सहेली का किसी लड़के से प्रेम...यह और चीज़ थी। इस प्रेम की चर्चा होने पर पर मलमल के जामे-सा हलका आवरण स्नायुओं को छू लेता था।
‘‘उम्मी !’’ माँ खिड़की में उसके पास आकर खड़ी हो गई।
उमा ने जरा चौंककर माँ की ओर देखा।
‘‘तुझे अभी तैयार नहीं होना ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘अभी तैयार हो जाऊँगी, ऐसी क्या जल्दी है ?’’ और उमा की आँखें गली की ओर ही लगी रहीं।
‘‘जाना है तो अब कपड़े-अपड़े बदल ले, ’’माँ ने कहा, ‘‘बता साड़ी निकाल दूँ कि सूट ?’’
‘‘जो चाहे निकाल दो...’’ उमा अन्यमनस्क भाव से बोली।
तेरी अपनी कोई मर्जी नहीं ?’’
‘‘उसमें मर्जी का क्या है ? जो निकाल दोगी, पहन लूँगी।’’
उसे अपने शरीर पर साड़ी और सूट दोनों में से कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी। कीमती से कीमती कपड़े उसके अंगों को छूकर जैसे मुरझा जाते थे। रक्षा सवेरे साधारण खादी के कपड़े पहनकर आई थी, फिर भी बहुत सुंदर लग रही थी। उमा खिड़की से हटकर शीशे के सामने चली गई। मन में फिर वही झुँझलाहट उठी। आज वह इतने लोगों के बीच जाकर कैसी लगेगी ? माँ ने सुबह मना कर दिया होता तो कितना अच्छा था ? अब भी यदि वह रक्षा से ज्वर या सिरदर्द का बहाना कर दे...?
वह अपने मन की दुर्बलता को तरह-तरह से सहारा दे रही थी। कभी चाहती कि रक्षा उसे लेने आना ही भूल जाए। कभी सोचती कि शायद यह सपना ही हो और आँख खुलने पर उसे लगे कि वह यूँ ही डर रही थी। मगर सपना होता तो कहीं से टूटता या बदलता। सुबह से अब तक इतना एकतार सपना कैसे हो सकता था ?
माँ ने सफेद साटिन का सूट लाकर उसके हाथ में दे दिया। उमा ने उसे शरीर से लगाकर देखा। उसे अच्छा नहीं लगा। मगर उसका नया सूट वही था। उसने सोचा कि एक बार पहनकर देख ले, पहनने में क्या हर्ज है ?
सूट की फिटिंग बिलकुल ठीक थी। उसे लगा कि उससे उसके अंगों का भद्दापन और व्यक्त हो आया है। यदि उसकी कमर कुछ पतली और नीचे का हिस्सा ज़रा भारी होता तो ठीक था। यदि उसकी होश में ही उसका पुनर्जन्म हो जाए और उसे रक्षा जैसा शरीर मिले तो वह सूट में कितनी अच्छी लगे ?
माँ वह लकड़ी का डिब्बा ले आई जो कभी उसकी फूफी ने उपहार में दिया। उसमें पाउडर क्रीम, लिपस्टिक और नेलपॉलिश, कितनी ही चीजें थीं। उसने उन्हें कई बार सूँघा तो था, पर अपने शरीर पर उनके प्रयोग की कल्पना नहीं की थी। उसने माँ की ओर देखा। माँ मुसकरा रही थी।
‘‘यह किसके लिए लाई हो ?’’ उमा ने पूछा।
‘‘तेरे लिए और किसके लिए ?’’ माँ बोली, ‘‘ब्याह वाले घर नहीं जाएगी ?’’
‘‘तो उसके लिए इस सबकी क्या जरूरत है ?’’
‘‘वैसे जाना लोगों को बुरा लगेगा। घड़ी दो घड़ी की ही तो बात है।’’
‘‘लालाजी ने देख लिया तो....?’’
‘‘वे देर से घर आएँगे। तू लौटकर साबुन से मुँह धो लेना।’’
‘‘परंतु...।’’
उसके मन का परंतु नहीं निकला। पर वह मना भी नहीं कर सकी। उसकी इच्छा न हो, ऐसी बात नहीं थी, पर मन में आशंका भी थी। वह उन चीजों को अनिश्चित सी देखती रही। माँ दूसरे कमरे में चली गई।
लिपस्टिक उसने होठों के पास रखकर देखी। फिर मन हुआ कि हलका सा रंग चढ़ाकर देख ले। चाहेगी। तो पल भर में तौलिए से पोंछ देगी।
ज्यों ज्यों होंठों का रंग बदलने लगा, उसके मन की उत्सुकता बढ़ने लगी। तौलिए से होंठ छिपाए हुए वह जाकर खिड़की के किवाड़ बंद कर आई। फिर शीशे के सामने आकर वह तौलिए से होठों को रगड़ने लगी। उससे रंग कुछ फीका तो हो गया, पर पूरी तरह नहीं उतरा। फिर तौलिया रखकर उसने पाउडर की डिबिया
उठा ली। मन ने प्रेरणा दी कि तौलिया है, पानी है, एक मिनट में चेहरा साफ हो सकता है, और वह पफ से चेहरे पर पाउडर लगाने लगी।
पफ रखकर जब उसने चेहरे को हाथ से मलना आरंभ किया तभी सीढ़ियों पर पैरों की खट्-खट् सुनाई दी। इससे पहले कि वह तौलिए में मुँह छिपा पाती, रक्षा दरवाजा खोलकर कमरे में आ गई। उमा के लिए अपना आप भारी हो गया।
‘‘तैयार हो गई, परी रानी ?’’ रक्षा ने मुसकराकर पूछा।
‘परी रानी’ शब्द उमा को खटक गया। उसे लगा कि उस शब्द में चुभती हुई चोट है।
‘‘साढ़े पाँच बज गए ?’’
उसने कुंठित स्वर में पूछा।
‘‘अभी दस बारह मिनट बाकी हैं।’’ रक्षा ने कहा।
‘‘समझ रही थी, अभी पाँच भी नहीं बजे’’, उमा ने किसी तरह मुसकराकर कहा। उसकी आँखें रक्षा के शरीर पर स्थिर हो रही थीं। आसमानी साड़ी के साथ हीरे के टॉप्स और सोने की चूड़ियाँ पहनकर रक्षा बहुत सुंदर लग रही थी।
माँ ने अंदर से पुकारा तो उमा को जैसे वहाँ से हटने का बहाना मिल गया। अंदर गई तो माँ वह मखमली डिबिया लिए खड़ी थी, जिसमें सोने की ज़ंजीर रखी रहती थी। वह ज़ंजीर माँ के ब्याह में आई थी और उमा के ब्याह में दी जाने के लिए संदूक में सँभालकर रखी हुई थी। माँ ने जंजीर उसके गले में पहना दी तो उमा को बहुत अजीब लगने लगा। रक्षा इधर आवाज़ दे रही थी इसलिए वह माँ के साथ बाहर कमरे में आ गई। उसके बाहर आते ही रक्षा ने चलने की जल्दी मचा दी।
जब वह चलने लगी तो माँ ने पीछे से कहा, ‘‘रात को मंदिर में उत्सव भी है। हो सके तो आती हुई दर्शन करती आना।’’
वह सीढ़ियों से उतरकर रक्षा बहुत जल्दी इधर उधर लोगों से उलझ गई। वह यहाँ से वहाँ जाती, वहाँ से उसके पास और उसके पास से और किसी के पास। उमा सोफे के एक कोने में सिमटकर बैठी रही। जब उसकी रक्षा से आँख मिल जाती तो रक्षा मुसकराकर उसे उत्साहित कर देती। जब रक्षा दूर जाती तो उमा बहुत अकेली पड़ने लगती। वह बत्तियों से जगमगाता हुआ घर उसके लिए बहुत पराया था। वहाँ फैली हुई महक अपनी दीवारों की गंध से बहुत भिन्न थी। खामोश अकेलेपन के स्थान पर चारों ओर खिलखिलाता हुआ शोर सुनाई दे रहा था। वह एक प्रवाह था जिसमें निरंतर लहरें उठ रही थीं। पर वह लहरों में लहर नहीं, एक तिनके की तरह थी-अकेली और एक ओर को हटी हुई।
रक्षा कुछ और लड़कियों को लिए हुए बाहर से आई और उसने उन्हें उसका परिचय दिया, ‘‘यह हमारी उमा रानी है, तुम लोगों की तरह चंट नहीं है, बहुत सीधी लड़की है।’’
उमा को इस तरह अपना परिचय दिया जाना अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह मुसकरा दी। रक्षा दूसरी लड़कियों का परिचय कराने लगी ‘‘यह कांता है, इंटर में पढ़ती है। अभी अभी इसने कॉलेज के नाटक में जूलिएट का अभिनय किया था, बहुत अच्छा अभिनय रहा।...यह कंचन है, आजकल कला भवन में नृत्य सीख रही है।...और मनोरमा...यह कॉलेज के किसी भी लड़के को मात दे सकती है...
परिचय पाकर उमा अपने को उनसे और भी दूर अनुभव करने लगी। उन सबके पास करने के लिए अपनी बातें थीं। ‘वह’ ‘उस दिन’, ‘वह बात’ आदि संकेतों से वे बरबस हँस देती थीं। उमा के विचार कभी फरश पर अटक, जाते कभी छत से टकराने लगते और कभी सफेद सूट पर आकर सिमट जाते।
रक्षा कांता को एक फोटो दिखा रही थी। और कह रही थी कि इस लड़के से ललिता की शादी हो रही है।
‘‘अच्छी लॉटरी है !’’ कांता तसवीर हाथ में लेकर बोली, ‘‘एक दिन की भी जान-पहचान नहीं, और कल को ये पतिदेव होंगे और ललिता जी ‘हमारे वे’ कहकर इनकी बात करेंगी-धन्य पतिदेव।’’
कांता की बात पर और सबके साथ उमा भी हँस दी। पर वह बेमतलब की हँसी थी, उसे हँसने के लिए आतंरिक गुदगुदी का ज़रा भी अनुभव नहीं हुआ था। उसके स्नायु जैसे जकड़ गए थे। खुलना चाहते थे, लेकिन खुल नहीं पा रहे थे।
बात में से बात निकल रही थी। कभी कोई बात स्पष्ट कही जाती और कभी सांकेतिक भाषा में। सहसा बात बीच में ही छोड़कर रक्षा एक नवयुवक को लक्षित करके बोली, ‘‘आइए, भाई साहब ! लाए हैं आप हमारी चीज़ ?’’
‘‘भई, माफ कर दो,’’ नवयुवक पास आता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारी चीज़ मुझसे गुम हो गई।’’
‘‘हाँ, गुम हो गई ! साथ आप नहीं गुम हो गए ?’’ रक्षा धृष्टता के साथ बोली।
‘‘अपना भी क्या पता है ?’’ नवयुवक ने कहा, ‘‘इनसान को गुम होते देर लगती है ?’’
नवयुवक लंबा और दुबला-पतला था और देखने में काफी अच्छा लग रहा था। उमा ने एक नज़र देखकर आँखें हटा लीं।
उसे लगता था, वह देखने में सुंदर नहीं है। वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुँझलाहट भर आती। उसका मन होता कि उसकी नाक लंबी हो, गाल ज़रा हलके हों, ठोड़ी आगे की ओर निकली हो और आँखें थोड़ा और बड़ी हों। परंतु अब यह परिवर्तन कैसे होता ? उसे लगता कि उसके प्राण एक गलत शरीर में फँस गए हैं, जिससे निस्तार का कोई चारा नहीं, और वह खीझकर शीशे के सामने से हट जाती।
उसकी माँ हर रोज़ गीता का पाठ करती थी। वह बैठकर गीता सुना करती थी : कभी माँ कथा सुनने जाती तो वह साथ चली जाती थी। रोज रोज पंडित की एक ही तरह की कथा होती थी-‘नाना प्रकार कर-करके नारद जी कहते भए हे राजन्..पंडित जो कुछ सुनाता था, उसमें उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी। उसकी माँ कथा सुनते सुनते ऊँघने लगती थी। वह दरी पर बिखरे हुए फूलों को हाथों में लेकर मसलती रहती थी।
घर में माँ ने ठाकुरजी की मूर्ति रखी थी, जिसकी दोनों समय आरती होती थी। उसके पिता रात को रोटी खाने के बाद ‘चौरासी बैष्णवों की वार्ता’ में से कोई वार्ता सुनाया करते थे। वार्ता के अतिरिक्त जो चर्चा होती, उसमें सतियों के चरित्र और दाल आटे का हिसाब, निराकार की महिमा और सोने चाँदी के भाव, सभी तरह के विषय आ जाते। वह पिता द्वारा दी गई जानकारी पर कई बार आश्चर्य प्रकट करती, पर उस आश्चर्य में उत्साह नहीं होता।
उसे मिडिल पास किए चार साल हो गए थे। तब से अब तक वह उस संधिकाल में से गुजर रही थी जब सिवा विवाह की प्रतीक्षा करने के जीवन का और कोई ध्येय नहीं होता। माता पिता जिस दिन भी विवाह कर दें, उस दिन उसे पत्नी बनकर दूसरे घर में चली जाना था। यह महीने दो महीने में भी संभव हो सकता था, और दो तीन साल और भी प्रतीक्षा में निकल जा सकते थे।
उमा कुछ कर नहीं रही थी, फिर भी अपने में व्यस्त थी। बैठी थी, लेट गई। फिर उठकर कमरे में टहलने लगी। फिर खिड़की के पास खड़ी होकर गली की ओर देखने लगी और काफी देर तक देखती रही।
सवेरे रक्षा उसे सरला के ब्याह का बुलावा दे गई थी। वह कह गई थी कि वह साढ़े पाँच बजे तैयार रहे, वह उसे आकर ले जाएगी। पहले रक्षा ने उसे बताया था कि सरला का किसी लड़के से प्रेम चल रहा है, जो उसे चिट्ठियों में कविता लिखकर भेजता है और जलती दोपहर में कॉलेज के गेट के पास उसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। आज वह प्रेम फलीभूत होने जा रहा था। प्रेम यह शब्द उसे गुदगुदा देता था। राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा तो रोज़ ही घर में हुआ करती थी। परंतु उस दिव्य और अलौकिक प्रेम के बखान से वह विभोर नहीं होती थी। परंतु यह प्रेम...उसकी सहेली का किसी लड़के से प्रेम...यह और चीज़ थी। इस प्रेम की चर्चा होने पर पर मलमल के जामे-सा हलका आवरण स्नायुओं को छू लेता था।
‘‘उम्मी !’’ माँ खिड़की में उसके पास आकर खड़ी हो गई।
उमा ने जरा चौंककर माँ की ओर देखा।
‘‘तुझे अभी तैयार नहीं होना ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘अभी तैयार हो जाऊँगी, ऐसी क्या जल्दी है ?’’ और उमा की आँखें गली की ओर ही लगी रहीं।
‘‘जाना है तो अब कपड़े-अपड़े बदल ले, ’’माँ ने कहा, ‘‘बता साड़ी निकाल दूँ कि सूट ?’’
‘‘जो चाहे निकाल दो...’’ उमा अन्यमनस्क भाव से बोली।
तेरी अपनी कोई मर्जी नहीं ?’’
‘‘उसमें मर्जी का क्या है ? जो निकाल दोगी, पहन लूँगी।’’
उसे अपने शरीर पर साड़ी और सूट दोनों में से कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी। कीमती से कीमती कपड़े उसके अंगों को छूकर जैसे मुरझा जाते थे। रक्षा सवेरे साधारण खादी के कपड़े पहनकर आई थी, फिर भी बहुत सुंदर लग रही थी। उमा खिड़की से हटकर शीशे के सामने चली गई। मन में फिर वही झुँझलाहट उठी। आज वह इतने लोगों के बीच जाकर कैसी लगेगी ? माँ ने सुबह मना कर दिया होता तो कितना अच्छा था ? अब भी यदि वह रक्षा से ज्वर या सिरदर्द का बहाना कर दे...?
वह अपने मन की दुर्बलता को तरह-तरह से सहारा दे रही थी। कभी चाहती कि रक्षा उसे लेने आना ही भूल जाए। कभी सोचती कि शायद यह सपना ही हो और आँख खुलने पर उसे लगे कि वह यूँ ही डर रही थी। मगर सपना होता तो कहीं से टूटता या बदलता। सुबह से अब तक इतना एकतार सपना कैसे हो सकता था ?
माँ ने सफेद साटिन का सूट लाकर उसके हाथ में दे दिया। उमा ने उसे शरीर से लगाकर देखा। उसे अच्छा नहीं लगा। मगर उसका नया सूट वही था। उसने सोचा कि एक बार पहनकर देख ले, पहनने में क्या हर्ज है ?
सूट की फिटिंग बिलकुल ठीक थी। उसे लगा कि उससे उसके अंगों का भद्दापन और व्यक्त हो आया है। यदि उसकी कमर कुछ पतली और नीचे का हिस्सा ज़रा भारी होता तो ठीक था। यदि उसकी होश में ही उसका पुनर्जन्म हो जाए और उसे रक्षा जैसा शरीर मिले तो वह सूट में कितनी अच्छी लगे ?
माँ वह लकड़ी का डिब्बा ले आई जो कभी उसकी फूफी ने उपहार में दिया। उसमें पाउडर क्रीम, लिपस्टिक और नेलपॉलिश, कितनी ही चीजें थीं। उसने उन्हें कई बार सूँघा तो था, पर अपने शरीर पर उनके प्रयोग की कल्पना नहीं की थी। उसने माँ की ओर देखा। माँ मुसकरा रही थी।
‘‘यह किसके लिए लाई हो ?’’ उमा ने पूछा।
‘‘तेरे लिए और किसके लिए ?’’ माँ बोली, ‘‘ब्याह वाले घर नहीं जाएगी ?’’
‘‘तो उसके लिए इस सबकी क्या जरूरत है ?’’
‘‘वैसे जाना लोगों को बुरा लगेगा। घड़ी दो घड़ी की ही तो बात है।’’
‘‘लालाजी ने देख लिया तो....?’’
‘‘वे देर से घर आएँगे। तू लौटकर साबुन से मुँह धो लेना।’’
‘‘परंतु...।’’
उसके मन का परंतु नहीं निकला। पर वह मना भी नहीं कर सकी। उसकी इच्छा न हो, ऐसी बात नहीं थी, पर मन में आशंका भी थी। वह उन चीजों को अनिश्चित सी देखती रही। माँ दूसरे कमरे में चली गई।
लिपस्टिक उसने होठों के पास रखकर देखी। फिर मन हुआ कि हलका सा रंग चढ़ाकर देख ले। चाहेगी। तो पल भर में तौलिए से पोंछ देगी।
ज्यों ज्यों होंठों का रंग बदलने लगा, उसके मन की उत्सुकता बढ़ने लगी। तौलिए से होंठ छिपाए हुए वह जाकर खिड़की के किवाड़ बंद कर आई। फिर शीशे के सामने आकर वह तौलिए से होठों को रगड़ने लगी। उससे रंग कुछ फीका तो हो गया, पर पूरी तरह नहीं उतरा। फिर तौलिया रखकर उसने पाउडर की डिबिया
उठा ली। मन ने प्रेरणा दी कि तौलिया है, पानी है, एक मिनट में चेहरा साफ हो सकता है, और वह पफ से चेहरे पर पाउडर लगाने लगी।
पफ रखकर जब उसने चेहरे को हाथ से मलना आरंभ किया तभी सीढ़ियों पर पैरों की खट्-खट् सुनाई दी। इससे पहले कि वह तौलिए में मुँह छिपा पाती, रक्षा दरवाजा खोलकर कमरे में आ गई। उमा के लिए अपना आप भारी हो गया।
‘‘तैयार हो गई, परी रानी ?’’ रक्षा ने मुसकराकर पूछा।
‘परी रानी’ शब्द उमा को खटक गया। उसे लगा कि उस शब्द में चुभती हुई चोट है।
‘‘साढ़े पाँच बज गए ?’’
उसने कुंठित स्वर में पूछा।
‘‘अभी दस बारह मिनट बाकी हैं।’’ रक्षा ने कहा।
‘‘समझ रही थी, अभी पाँच भी नहीं बजे’’, उमा ने किसी तरह मुसकराकर कहा। उसकी आँखें रक्षा के शरीर पर स्थिर हो रही थीं। आसमानी साड़ी के साथ हीरे के टॉप्स और सोने की चूड़ियाँ पहनकर रक्षा बहुत सुंदर लग रही थी।
माँ ने अंदर से पुकारा तो उमा को जैसे वहाँ से हटने का बहाना मिल गया। अंदर गई तो माँ वह मखमली डिबिया लिए खड़ी थी, जिसमें सोने की ज़ंजीर रखी रहती थी। वह ज़ंजीर माँ के ब्याह में आई थी और उमा के ब्याह में दी जाने के लिए संदूक में सँभालकर रखी हुई थी। माँ ने जंजीर उसके गले में पहना दी तो उमा को बहुत अजीब लगने लगा। रक्षा इधर आवाज़ दे रही थी इसलिए वह माँ के साथ बाहर कमरे में आ गई। उसके बाहर आते ही रक्षा ने चलने की जल्दी मचा दी।
जब वह चलने लगी तो माँ ने पीछे से कहा, ‘‘रात को मंदिर में उत्सव भी है। हो सके तो आती हुई दर्शन करती आना।’’
वह सीढ़ियों से उतरकर रक्षा बहुत जल्दी इधर उधर लोगों से उलझ गई। वह यहाँ से वहाँ जाती, वहाँ से उसके पास और उसके पास से और किसी के पास। उमा सोफे के एक कोने में सिमटकर बैठी रही। जब उसकी रक्षा से आँख मिल जाती तो रक्षा मुसकराकर उसे उत्साहित कर देती। जब रक्षा दूर जाती तो उमा बहुत अकेली पड़ने लगती। वह बत्तियों से जगमगाता हुआ घर उसके लिए बहुत पराया था। वहाँ फैली हुई महक अपनी दीवारों की गंध से बहुत भिन्न थी। खामोश अकेलेपन के स्थान पर चारों ओर खिलखिलाता हुआ शोर सुनाई दे रहा था। वह एक प्रवाह था जिसमें निरंतर लहरें उठ रही थीं। पर वह लहरों में लहर नहीं, एक तिनके की तरह थी-अकेली और एक ओर को हटी हुई।
रक्षा कुछ और लड़कियों को लिए हुए बाहर से आई और उसने उन्हें उसका परिचय दिया, ‘‘यह हमारी उमा रानी है, तुम लोगों की तरह चंट नहीं है, बहुत सीधी लड़की है।’’
उमा को इस तरह अपना परिचय दिया जाना अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह मुसकरा दी। रक्षा दूसरी लड़कियों का परिचय कराने लगी ‘‘यह कांता है, इंटर में पढ़ती है। अभी अभी इसने कॉलेज के नाटक में जूलिएट का अभिनय किया था, बहुत अच्छा अभिनय रहा।...यह कंचन है, आजकल कला भवन में नृत्य सीख रही है।...और मनोरमा...यह कॉलेज के किसी भी लड़के को मात दे सकती है...
परिचय पाकर उमा अपने को उनसे और भी दूर अनुभव करने लगी। उन सबके पास करने के लिए अपनी बातें थीं। ‘वह’ ‘उस दिन’, ‘वह बात’ आदि संकेतों से वे बरबस हँस देती थीं। उमा के विचार कभी फरश पर अटक, जाते कभी छत से टकराने लगते और कभी सफेद सूट पर आकर सिमट जाते।
रक्षा कांता को एक फोटो दिखा रही थी। और कह रही थी कि इस लड़के से ललिता की शादी हो रही है।
‘‘अच्छी लॉटरी है !’’ कांता तसवीर हाथ में लेकर बोली, ‘‘एक दिन की भी जान-पहचान नहीं, और कल को ये पतिदेव होंगे और ललिता जी ‘हमारे वे’ कहकर इनकी बात करेंगी-धन्य पतिदेव।’’
कांता की बात पर और सबके साथ उमा भी हँस दी। पर वह बेमतलब की हँसी थी, उसे हँसने के लिए आतंरिक गुदगुदी का ज़रा भी अनुभव नहीं हुआ था। उसके स्नायु जैसे जकड़ गए थे। खुलना चाहते थे, लेकिन खुल नहीं पा रहे थे।
बात में से बात निकल रही थी। कभी कोई बात स्पष्ट कही जाती और कभी सांकेतिक भाषा में। सहसा बात बीच में ही छोड़कर रक्षा एक नवयुवक को लक्षित करके बोली, ‘‘आइए, भाई साहब ! लाए हैं आप हमारी चीज़ ?’’
‘‘भई, माफ कर दो,’’ नवयुवक पास आता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारी चीज़ मुझसे गुम हो गई।’’
‘‘हाँ, गुम हो गई ! साथ आप नहीं गुम हो गए ?’’ रक्षा धृष्टता के साथ बोली।
‘‘अपना भी क्या पता है ?’’ नवयुवक ने कहा, ‘‘इनसान को गुम होते देर लगती है ?’’
नवयुवक लंबा और दुबला-पतला था और देखने में काफी अच्छा लग रहा था। उमा ने एक नज़र देखकर आँखें हटा लीं।
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